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The Dwarka of Bhagwan Krishna In The Space Archaeology

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☝The Mahabharat exposed the Dwarka, as mentioned here in the red dotted lines around the confluence of the River Sarasvati. But nobody examined it seriously. This speaks the poor condition of our young youths, who mostly are cut-off from their roots and brings a grim picture of the establishments, who were  responsible for writing correct history of India.  Ancient literatures Mahabharata, Harivans, Skanda Puran, Vishnu Puran have mentioned about Bhagwan Krishna and His Dwarka. The archaeological evidence of Bhagwan Krishna and His Dwarka have disturbed at 360 degree angle,  the established & bogus colonial history of India. This has disturbed the idea and concept of John Marshall's defective terminology on the Indus Valley Civilization. Starting from the Vedic times the location of Mathura and Kurukshetra are perhaps least undisputed. But, nobody tried to examine our ancient literatures to hit at the right location. The Dwarka of Bhagwan Krishna has inherent relation with the

"लक्ष्मण - जोदड़ो" एक रिपोर्ताज

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   सिंध के "मोहन-जोदड़ो" के पास स्थित  स्थल  "लक्ष्मण - जोदड़ो" आज समाप्ति के मुहाने पर खड़ी है. इसकी आवाज दब चुकी है. यह स्थल विलुप्त हो चुकी है. "मोहन-जोदड़ो" और "लक्ष्मण - जोदड़ो" विशुद्ध हिन्दू नाम हैं . ये हिन्दू नाम बतलाते हैं की इस स्थल के निर्माण के पहले भारतवर्ष में भगवान  कृष्ण और भगवान राम का अवतरण हो चुकी है. "लक्ष्मण - जोदड़ो",  बहुत विशाल क्षेत्र में फैली थी . यह किसी भी अवस्था में "मोहन - जोदड़ो" से कम नहीं  थी. "मोहन-जोदड़ो" और "लक्ष्मण - जोदड़ो"  साथ साथ  विकसित हुए . ये दोनों सभ्यता एक वृक्ष के दो पत्ते थे . "मोहन-जोदड़ो"  और "लक्ष्मण - जोदड़ो"  को अंग्रेजों ने आसपास खोजा था . भारत के लोग "मोहन-जोदड़ो"  तो जानते हैं पर वे  "लक्ष्मण - जोदड़ो" नहीं जानते ! तेजी से बढ़ रही औद्योगिक करण ने  "लक्ष्मण - जोदड़ो" को निगल लिया है . बहुत सारे उद्योग समूह के बीच "लक्ष्मण - जोदड़ो"  है . कोई भी पुरानी चीज जान बूझ कर नष्ट कर दी जाती है . उद्योग के निर्माण में

वैदिक पुरातत्व में भगवान कृष्ण Bhagwan Krishna In The Vedic Archaeology

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  भगवान कृष्ण,  श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं,  परब्रह्मा  निर्गुण ( गुण रहित ) तथा  निराकार ( जिनका कोई आकार नही ) हैं।   भगवान कृष्ण पुनः कहते हैं यह परब्रह्म चिन्ह "एक अक्षर"  है।  वे पुनः कहते हैं  :  मेरा अर्थात् निर्गुण-निराकार परम "अक्षर ब्रह्म" का ही  ध्यान योगी को करना चाहिए।  मुण्डकोपनिषद इस एक अक्षर चिन्ह की विशद व्याख्या करती है तथा श्रीमद्भगवद्गीता के "एक अक्षर" ध्यान विधि को साधारण शब्दों में स्पष्ट करती है:   "प्रणवो धनुः शारो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥ ४ ॥" "ॐ (  एक अक्षर ओंकार ) , धनुष के समान है। ध्यान के समय  "आत्मा" इसके   बाण हैं, और 'वह', अर्थात् 'परब्रह्म'  लक्ष्य हैं।"  श्रीमद्भगवद्गीता के भगवान कृष्ण के आदेश वाक्य निरर्थक नही हो सकते।  मोहनजोदड़ो की यह  मुद्रा भगवान कृष्ण का आदेश वाक्य कहती है.    इस धनुष की बाण,  आत्मा है।  इसका लक्ष्य " परब्रह्म " हैं जिनका चिन्ह "अश्वत्थ"  है। भगवान कृष्ण  पुनः  श्रीमद्भगवद्गीता में क

भगवान कृष्ण के "विस्तारित द्वारका" के रहस्य Unknown Archaeology of the "Greater Dwarka" of Bhagwan Krishna

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कच्छ के रण में "विस्तारित द्वारका" ( Greater Dwarka ) के विशाल पुरातात्विक साक्ष्य मिलते हैं . यह साक्ष्य अबतक लोगों से छिपी है. यहाँ मूल द्वारका की तरह पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं. जो यह स्पष्ट करती है की यह भगवान कृष्ण की "विस्तारित द्वारका" ( Greater Dwarka )  है .   इसकी उत्तम और विशाल सुव्यवस्थित नगर योजना,  मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से दस गुनी बड़ी है.   ( Copyright protected image by Birendra K Jha. Image not to be  used for commercial and other purposes without permission ).    कच्छ की विशाल सूखी रण, भगवान कृष्ण के द्वारका की  कई रहस्यों को खोलती है. वियावान और निर्जन प्रान्त के चलते कोई यहाँ आता भी नही. परन्तु भगवान कृष्ण के अनंत सखा "फ्लेमिंगो" ( सारस ),  रूस से यहाँ 4760  किलो मीटर की लम्बी दूरी तय करके द्वारका में भगवान कृष्ण के पास पहुंच जाते हैं. भारत उनका दूसरा  घर है. यह अहर्निश क्रिया 5200  वर्षों से चल रही है. लेकिन "फ्लेमिंगों" के साथ साथ  कुछ साहसी भू वैज्ञानिकों ने इस जगह काम की है.   आज से ठीक 3200  ईस्वी पूर्व में कच्छ की रण, में

"कलि संवत 804 : सरस्वती नदी की एक उजड़े बस्ती की कहानी"

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 .  ☝सरस्वती नदी की यह सूखी पेटी  कलि  संवत 804 में बह रही थी. पाकिस्तान की स्थानीय प्रजा   आज भी इसे  सरस्वती नदी ही कहते हैं   (  आभार : पाकिस्तान के हशम हुसैन शेख साहब ) 3100 ईस्वी पूर्व ( 3100 BCE )  में द्वारका डूब गई. इस भौगोलिक परिवर्तन में एकाएक कच्छ के रण भी सूख गए. द्वारका डूबने के समय, सरस्वती नदी बह रही थी. सरस्वती की मुख्य तीन धारा सिरसा के पास विभजित होती थी. एक धारा  हनुमानगढ़, कालीबंगन, पाकिस्तान के फोर्ट अब्बास,  कच्छ के रण  होते हुए पाकिस्तान  के मीरपुरखास   जिले में पहुँचती थी.  कच्छ के रण,  नमक में परिवर्तित हो जाने के कारण, कालीबंगन और मीरपुरखास  जिले में पहुंचने वाली पानी बंद हो गई. यह विषम जलवायू परिवर्तन थी. हिमालय से लेकर कालीबंगन परिपथ की नदी भी सूख गई . पाकिस्तान के मीरपुरखास  जिले, तहशील सिंडरो  में सरस्वती नदी के किनारे एक बहुत बड़ी बस्ती थी, जो आज जमीन के नीचे पडी है. यहां विपुल मात्रा में सिरेमिक बर्तन तो मिले ही हैं साथ ही महत्वपूर्ण पुरालेख भी प्राप्त हुए हैं. ये पुरालेख संस्कृत भाषा में हैं तथा प्राचीन  देवनागरी लिपि में लिखी है. इस पुरालेख के अंतिम वाक्

"स्पेस आर्कियोलॉजी" में भारत की ऊंची छलांग

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  ☝ "स्पेस आर्कियोलॉजी" में "एनालॉग तकनीक"  भारत की ऊंची उड़ान है. यह  न केवल सेटेलाइट को समुद्र के अंदर देखने   की  क्षमता प्रदान करती है, अपितु विज्ञान के असीमित संभावना को लेकर यह तकनीक उपस्थित हुई है . चित्र में गहरे पानी में स्थित प्राचीन द्वारका में संगमरमर से निर्मित भगवान कृष्ण की राजमहल देखी जा रही है.        ( Protected under Copyright & Intellectual Property Law  : Birendra K Jha )   द्वारका की खोज, भारत के प्राचीन इतिहास और संस्कृति के अनेक अनसुलझे प्रश्नों का उत्तर देती है. द्वारका, पूर्व वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल की संगम बिंदु है. द्वारका निर्माण के लगभग 30 वर्षो के बाद महाभारत युद्ध हुई थी. महाभारत युद्ध के उपरान्त, मोहनजोदड़ो जैसे नगर उदित हुए. मोहनजोदड़ो की मुद्रायें विशाल परिमाण में, महाभारत युद्ध के नायक भगवान कृष्ण का स्मरण करते हैं.  द्वारका से प्राप्त जैविक अंश   के वैज्ञानिक कार्बोन डेटिंग,   द्वारका डूबने   का सटीक समय 3100 ईस्वी पूर्व ( 3100 BCE ) बताते हैं. हिन्दू कलेण्डर, सटीक वर्षों में  यह समय 3102  ईस्वी पूर्व ( 3102 BCE ) रखती  है.

विघाकोट की डायरी

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कच्छ की रण भगवान कृष्ण की वह अद्भुत संसार है जिसके बारे में हमारे इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता,  भूगर्भवेत्ता  बहुत ही कम  जानते हैं.  इतिहासकारों तथा  पुरातत्ववेत्ताओंने ने कभी जानने का प्रयास नहीं किया की इस जगह की महत्ता भारतीय संस्कृति और इतिहास में क्या है !   कच्छ का रण समुद्री मार्ग  द्वारा,  कच्छ के खाड़ी  में डूबे भगवान कृष्ण के द्वारका से जुडी थी.    कच्छ के खाड़ी के अंतिम सिरे में सरस्वती नदी और  समुद्र,   एक विशाल डेल्टा बनाती थी. इस डेल्टा की एक शिरा  कच्छ की खाड़ी तथा दूसरी शिरा कच्छ के रण से जुडी थी. कच्छ की रण पहले समुद्र थी. कुछ ऐसी जलवायू परिवर्तन हुई की सरस्वती नदी डेल्टा और कच्छ की रण के समुद्र  दोनों सूख गए. इस डेल्टा से  कच्छ की रण को जाने वाली सूखी पट्टी में अनेक समुद्री मछलियों और समुद्री जीव जन्तुओ के प्राचीन अवशेष प्राप्त होते हैं. विज्ञान इन अवशेषों के आधार पर यह प्रमाणित करती है की कभी ये सूखी पट्टी समुद्र थे. सेटेलाइट में  इस प्राचीन समुद्र के सूखे अवशेष को देखी गई है.  हम आपको लिए चलते हैं भगवान कृष्ण के उस युग में जब सरस्वती नदी डेल्टा और कच्छ के रण सूखे नहीं थ