वैदिक पुरातत्व में भगवान कृष्ण Bhagwan Krishna In The Vedic Archaeology

 


भगवान कृष्ण,  श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं,  परब्रह्मा  निर्गुण ( गुण रहित ) तथा  निराकार ( जिनका कोई आकार नही ) हैं।   भगवान कृष्ण पुनः कहते हैं यह परब्रह्म चिन्ह "एक अक्षर"  है।  वे पुनः कहते हैं  :  मेरा अर्थात् निर्गुण-निराकार परम "अक्षर ब्रह्म" का ही  ध्यान योगी को करना चाहिए।  मुण्डकोपनिषद इस एक अक्षर चिन्ह की विशद व्याख्या करती है तथा श्रीमद्भगवद्गीता के "एक अक्षर" ध्यान विधि को साधारण शब्दों में स्पष्ट करती है:  

"प्रणवो धनुः शारो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥ ४ ॥"

"ॐ (  एक अक्षर ओंकार ) , धनुष के समान है। ध्यान के समय  "आत्मा" इसके   बाण हैं, और 'वह', अर्थात् 'परब्रह्म'  लक्ष्य हैं।"  श्रीमद्भगवद्गीता के भगवान कृष्ण के आदेश वाक्य निरर्थक नही हो सकते।  मोहनजोदड़ो की यह  मुद्रा भगवान कृष्ण का आदेश वाक्य कहती है.    इस धनुष की बाण,  आत्मा है।  इसका लक्ष्य " परब्रह्म " हैं जिनका चिन्ह "अश्वत्थ"  है। भगवान कृष्ण  पुनः  श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं:

"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। अत्र नाम्ना नामिनो निर्देशः। तथा प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्ल्क्ष्यमुच्यते।" 

अर्थात ओंकार अक्षर,  "मुझ में"   मेरा अर्थात् " निर्गुण-निराकार परम अक्षर ब्रह्म" में ध्यान करे।   यही  सच्चिदानन्द परब्रह्म  के चिन्ह को भगवान कृष्ण और स्पष्ट करते हैं।  वे बताते हैं -   परमात्मा का स्मरण  "मेरा स्मरण है" जिसका चिन्ह,   श्रीमद्भगवद्गीता  " सर्व वृक्षाणां अश्वत्थ"   कहकर - " मेरा चिन्ह अश्वत्थ पत्र  है". सम्बोधित करती है। मोहनजोदड़ो की प्रस्तुत मुद्रा, श्रीमदभगवद्गीता के आधार पर बनी है।  इसमें ओंकार चिन्ह एक धनुष चिन्ह है. इस धनुष चिन्ह में भगवान कृष्ण एकशृंग रूप में हैं.   जिसमें  लक्ष्य भेद भगवान कृष्ण के रूप में "अश्वत्थ पत्र"  हैं।  इसलिए आज का हिन्दू समाज  "अश्वत्थ वृक्ष"  की पूजा करते हैं. कई हजार वर्षों से इस वृक्ष में हिन्दू समाज "भगवान कृष्ण"  की पूजा करता आ रहा है.  जॉन मार्शल और राखल दास बनर्जी कहाँ  श्रीमद्भगवद्गीता और मुण्डकोपनिषद को समझ पाएंगे! वे तो साधारण हिन्दू समाज के आस्था को ही नहीं समझ पाए।   वे तो "बाइबिल" और "मेसोपोटामिया"  को मोहनजोदड़ो में खोज रहे थे।  कठोर भाषा में ऐसे  पुरातात्विकों की विचारधारा अशोभनीय थी। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में "इंडियन कौंसिल ऑफ़ हिस्टोरिकल रिसर्च " की दफ्तर आक्रामक रूप से मोहनजोदड़ो को हिन्दू समाज से विमुख करने का दुःसाहस   करती है।  इसके लिए इस विभाग ने अनर्गल पैसे बहाये हैं। यह अभिक्रिया इसलिए की गई की  अयोध्या विवाद में राम और कृष्ण को मिथक बताई जा सके।   ये ऐसे पुरातात्विक और इतिहासविद हैं जो आज हासिये पर हैं तथा अविश्वश्नीय हैं। मोहनजोदड़ो का योग समाज और  प्रस्तुत मुद्रा चिन्ह "ओंकार"  तब तक नहीं बन सकती, जब तक इस पृथ्वी पर भगवान कृष्ण और द्वारका का पदार्पण नहीं हो जाती.   यह एक अक्षर "परब्रह्म चिन्ह"  कन्नड़ लिपि  में प्राचीन स्वरूप में मिलती है, जैसे मोहनजोदड़ो में है।  देवनागरी लिपि में यह अक्षर ९० डिग्री कोण में घूम कर प्रथम अक्षर "अ" बनती है तथा इसी मूल अक्षर से ओंकार चिन्ह बनती है।  यह मोहनजोदड़ो के लिपि का  श्रुति और लिपि लेखन  के बीच की मूल अवधारणा है।      

द्वारका,  श्रुति और लिपि लेखन के आविष्कार के बीच खड़ी है. इसे कोई सहजता से समझ भी नहीं  पायेगा. डॉ झा और डॉ राजाराम ने जब इस प्रारंभिक लिपि लेखन के विषय में विश्व जगत को बताया तो कुछ  लोग हँसते थे . परन्तु क्रोध और दुःख के साथ ये लोग मानने को विवस हैं की भगवान कृष्ण और उनकी द्वारका सत्य है. महाभारत के शांति पर्व तथा मोक्ष धर्म पर्व में,  प्रारंभिक लिपि के साथ भगवान कृष्ण का विस्तृत लेखा जोखा है. द्वारका काल में, ऋग्वेद के प्राचीन वैदिक शब्द समझना अत्यंत कठिन हो गई थी. इस दुरावस्था को ख़त्म करने के लिए भगवान कृष्ण ने "निघण्टु" ( वैदिक शब्द कोष ) का निर्माण मिट्टी की मुद्रा में  किया था. भारत की यह प्राचीन पुस्तकालय  भयानक बाढ़  में  मिट्टी  के नीचे दब गई. भगवान कृष्ण ने इसका पुनः उद्धार किया  और यास्क की सहायता से इसे खोदकर निकाला और पुनः नए मिट्टी की मुद्रा बनाये गए. यास्क का यह लेखन "निघण्टुक पदाख्यान" है.  यह लिपि लेखन के प्रारंभिक अवस्था को बतलाती है. सिंधु सभ्यता का  मुद्रा लेखन महाभारत का यही प्रारंभिक लेखन है. दुर्भाग्य से काल्डवेल और अंग्रेजों के "फुट डालो और शासन करो " में सिंधु सभ्यता को  तमिल से जोड़ दी गई तथा यह प्रचारित की गई की पश्चिम एशिया से आर्यों ने तमिलों पर आक्रमण किया था. इस आक्रमण को स्थापित करने के लिए    भगवान कृष्ण के अस्तित्व को ही इतिहास से समाप्त  कर दी गई.  तमिलनाडू की बहुत बड़ी राजनैतिक दल, चुनाव जीतने के लिए इसे आज भी हथियार के रूप में प्रयोग करती है. परन्तु   काल्डवेल या अंग्रेज यह नहीं बताते की "दस्यू" के रूप में वैदिक लोकाचार मानने वाले तमिलनाडू के लोग भगवान कृष्ण  विधर्मी  कैसे हो सकते ? इसका उत्तर तमिलनाडू के जनता को स्वयं खोजनी होगी की काल्डवेल या अंग्रेजों ने उनके बारे में विभ्रमित जानकारी क्यों दी.  मार्क्सवादी इतिहास लेखन,  काल्डवेल या अंग्रेजों की ही बात कहती है. तमिलनाडू के लोग भूल जाते हैं,  जब तमिल संगम जैसे साहित्य भगवान कृष्ण से जुड़े हैं तो वे अपने आप को भगवान कृष्ण से कैसे अलग कर सकते हैं.  हमें गर्व है दक्षिण भारत के दो महान राज्य कर्नाटक और आंध्रप्रदेश ने सनातन धर्म की रक्षा में एक से बढ़ कर एक काम किये. तो वहीं तमिलनाडू  हमसे बहुत दूर होते गए. यह विभ्रमकारी इतिहास लेखन का ही प्रभाव थी, जिसमें एक भूभाग में रहने वाले लोग बाँट दिए जाते हैं.                           

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