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वैदिक पुरातत्व में भगवान कृष्ण Bhagwan Krishna In The Vedic Archaeology

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  भगवान कृष्ण,  श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं,  परब्रह्मा  निर्गुण ( गुण रहित ) तथा  निराकार ( जिनका कोई आकार नही ) हैं।   भगवान कृष्ण पुनः कहते हैं यह परब्रह्म चिन्ह "एक अक्षर"  है।  वे पुनः कहते हैं  :  मेरा अर्थात् निर्गुण-निराकार परम "अक्षर ब्रह्म" का ही  ध्यान योगी को करना चाहिए।  मुण्डकोपनिषद इस एक अक्षर चिन्ह की विशद व्याख्या करती है तथा श्रीमद्भगवद्गीता के "एक अक्षर" ध्यान विधि को साधारण शब्दों में स्पष्ट करती है:   "प्रणवो धनुः शारो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥ ४ ॥" "ॐ (  एक अक्षर ओंकार ) , धनुष के समान है। ध्यान के समय  "आत्मा" इसके   बाण हैं, और 'वह', अर्थात् 'परब्रह्म'  लक्ष्य हैं।"  श्रीमद्भगवद्गीता के भगवान कृष्ण के आदेश वाक्य निरर्थक नही हो सकते।  मोहनजोदड़ो की यह  मुद्रा भगवान कृष्ण का आदेश वाक्य कहती है.    इस धनुष की बाण,  आत्मा है।  इसका लक्ष्य " परब्रह्म " हैं जिनका चिन्ह "अश्वत्थ"  है। भगवान कृष्ण  पुनः  श्रीमद्भगवद्गीता में क

भगवान कृष्ण के "विस्तारित द्वारका" के रहस्य Unknown Archaeology of the "Greater Dwarka" of Bhagwan Krishna

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कच्छ के रण में "विस्तारित द्वारका" ( Greater Dwarka ) के विशाल पुरातात्विक साक्ष्य मिलते हैं . यह साक्ष्य अबतक लोगों से छिपी है. यहाँ मूल द्वारका की तरह पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं. जो यह स्पष्ट करती है की यह भगवान कृष्ण की "विस्तारित द्वारका" ( Greater Dwarka )  है .   इसकी उत्तम और विशाल सुव्यवस्थित नगर योजना,  मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से दस गुनी बड़ी है.   ( Copyright protected image by Birendra K Jha. Image not to be  used for commercial and other purposes without permission ).    कच्छ की विशाल सूखी रण, भगवान कृष्ण के द्वारका की  कई रहस्यों को खोलती है. वियावान और निर्जन प्रान्त के चलते कोई यहाँ आता भी नही. परन्तु भगवान कृष्ण के अनंत सखा "फ्लेमिंगो" ( सारस ),  रूस से यहाँ 4760  किलो मीटर की लम्बी दूरी तय करके द्वारका में भगवान कृष्ण के पास पहुंच जाते हैं. भारत उनका दूसरा  घर है. यह अहर्निश क्रिया 5200  वर्षों से चल रही है. लेकिन "फ्लेमिंगों" के साथ साथ  कुछ साहसी भू वैज्ञानिकों ने इस जगह काम की है.   आज से ठीक 3200  ईस्वी पूर्व में कच्छ की रण, में

"कलि संवत 804 : सरस्वती नदी की एक उजड़े बस्ती की कहानी"

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 .  ☝सरस्वती नदी की यह सूखी पेटी  कलि  संवत 804 में बह रही थी. पाकिस्तान की स्थानीय प्रजा   आज भी इसे  सरस्वती नदी ही कहते हैं   (  आभार : पाकिस्तान के हशम हुसैन शेख साहब ) 3100 ईस्वी पूर्व ( 3100 BCE )  में द्वारका डूब गई. इस भौगोलिक परिवर्तन में एकाएक कच्छ के रण भी सूख गए. द्वारका डूबने के समय, सरस्वती नदी बह रही थी. सरस्वती की मुख्य तीन धारा सिरसा के पास विभजित होती थी. एक धारा  हनुमानगढ़, कालीबंगन, पाकिस्तान के फोर्ट अब्बास,  कच्छ के रण  होते हुए पाकिस्तान  के मीरपुरखास   जिले में पहुँचती थी.  कच्छ के रण,  नमक में परिवर्तित हो जाने के कारण, कालीबंगन और मीरपुरखास  जिले में पहुंचने वाली पानी बंद हो गई. यह विषम जलवायू परिवर्तन थी. हिमालय से लेकर कालीबंगन परिपथ की नदी भी सूख गई . पाकिस्तान के मीरपुरखास  जिले, तहशील सिंडरो  में सरस्वती नदी के किनारे एक बहुत बड़ी बस्ती थी, जो आज जमीन के नीचे पडी है. यहां विपुल मात्रा में सिरेमिक बर्तन तो मिले ही हैं साथ ही महत्वपूर्ण पुरालेख भी प्राप्त हुए हैं. ये पुरालेख संस्कृत भाषा में हैं तथा प्राचीन  देवनागरी लिपि में लिखी है. इस पुरालेख के अंतिम वाक्

"स्पेस आर्कियोलॉजी" में भारत की ऊंची छलांग

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  ☝ "स्पेस आर्कियोलॉजी" में "एनालॉग तकनीक"  भारत की ऊंची उड़ान है. यह  न केवल सेटेलाइट को समुद्र के अंदर देखने   की  क्षमता प्रदान करती है, अपितु विज्ञान के असीमित संभावना को लेकर यह तकनीक उपस्थित हुई है . चित्र में गहरे पानी में स्थित प्राचीन द्वारका में संगमरमर से निर्मित भगवान कृष्ण की राजमहल देखी जा रही है.        ( Protected under Copyright & Intellectual Property Law  : Birendra K Jha )   द्वारका की खोज, भारत के प्राचीन इतिहास और संस्कृति के अनेक अनसुलझे प्रश्नों का उत्तर देती है. द्वारका, पूर्व वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल की संगम बिंदु है. द्वारका निर्माण के लगभग 30 वर्षो के बाद महाभारत युद्ध हुई थी. महाभारत युद्ध के उपरान्त, मोहनजोदड़ो जैसे नगर उदित हुए. मोहनजोदड़ो की मुद्रायें विशाल परिमाण में, महाभारत युद्ध के नायक भगवान कृष्ण का स्मरण करते हैं.  द्वारका से प्राप्त जैविक अंश   के वैज्ञानिक कार्बोन डेटिंग,   द्वारका डूबने   का सटीक समय 3100 ईस्वी पूर्व ( 3100 BCE ) बताते हैं. हिन्दू कलेण्डर, सटीक वर्षों में  यह समय 3102  ईस्वी पूर्व ( 3102 BCE ) रखती  है.

विघाकोट की डायरी

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कच्छ की रण भगवान कृष्ण की वह अद्भुत संसार है जिसके बारे में हमारे इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता,  भूगर्भवेत्ता  बहुत ही कम  जानते हैं.  इतिहासकारों तथा  पुरातत्ववेत्ताओंने ने कभी जानने का प्रयास नहीं किया की इस जगह की महत्ता भारतीय संस्कृति और इतिहास में क्या है !   कच्छ का रण समुद्री मार्ग  द्वारा,  कच्छ के खाड़ी  में डूबे भगवान कृष्ण के द्वारका से जुडी थी.    कच्छ के खाड़ी के अंतिम सिरे में सरस्वती नदी और  समुद्र,   एक विशाल डेल्टा बनाती थी. इस डेल्टा की एक शिरा  कच्छ की खाड़ी तथा दूसरी शिरा कच्छ के रण से जुडी थी. कच्छ की रण पहले समुद्र थी. कुछ ऐसी जलवायू परिवर्तन हुई की सरस्वती नदी डेल्टा और कच्छ की रण के समुद्र  दोनों सूख गए. इस डेल्टा से  कच्छ की रण को जाने वाली सूखी पट्टी में अनेक समुद्री मछलियों और समुद्री जीव जन्तुओ के प्राचीन अवशेष प्राप्त होते हैं. विज्ञान इन अवशेषों के आधार पर यह प्रमाणित करती है की कभी ये सूखी पट्टी समुद्र थे. सेटेलाइट में  इस प्राचीन समुद्र के सूखे अवशेष को देखी गई है.  हम आपको लिए चलते हैं भगवान कृष्ण के उस युग में जब सरस्वती नदी डेल्टा और कच्छ के रण सूखे नहीं थ

"हयग्रीव माधव"

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"डेसीफर्ड  इंडस स्क्रिप्ट" में डॉ झा और डॉ राजाराम, सिंधु सभ्यता के  एक मुद्रा पाठ में  "दधिक्रा" पढ़ते हैं. चार  अक्षरों की यह वैदिक शब्द पूर्णतः प्राचीन देवनागरी पर आधारित है. पुराविदों ने इन चार  अक्षरों  के देवनागरी प्राचीनता पर बिलकुल ध्यान नही दिया.  भगवान विष्णु की मूल अवधारणा में ऋग्वेद,    "दधिक्रा"  को एक घोड़े का चिन्ह मानती है. निघण्टुक पदाख्यान में भी "दधिक्रा" एक घोड़ा का चिन्ह है.   चिकित्सक अश्विन के "मधु विद्या" में  भगवान विष्णु "दद्यान्च अथर्वण" देवता के रूप में  "अश्व -मुख"  में ही उपस्थित होते हैं.  महाभारत का काल आते आते भगवान विष्णु की अवधारणा एक ऐसे वराह चिन्ह के रूप में मिलती है, जो "अश्व-मुख" में है.  "हयग्रीव"  महाभारत का अति महत्वपूर्ण प्रकरण है.  जिसमें भगवान विष्णु की सांकेतिक चिन्ह "शिर"  से लेकर गर्दन तक "अश्व-मुख" में मिलती है   "हय"  का अर्थ "अश्व"  है और "ग्रीव"  का अर्थ "गर्दन"  है.  स्कन्द पुराण में भगवान

प्रमाण आधारित खोज रिपोर्ट : कच्छ के रण में एक दिन Evidence Based Discovery Report: Rann of Kutch

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☝चित्र १ :  वलय के आकार के दो दीवार नगर को घेरे हुए स्पष्ट दिख रही है. सबसे ऊपर के दीवार के अंदर तीन पोत के  हेंगर भी बनी दिख रही है - The two half circles are protecting the city houses, when sea water was outside the half circle. There is running  wall enclosure beyond the semi circle wall. In between the semi circle wall and the running  wall - sea water was present. Just after the semi circle wall again sea water was filled intentionally to secure the fort. This water was filled inside the trench shown just after the semi circle wall. This is exactly the replica of the various sea forts  of the submerged Dwarka.     नमक. नमक की सफ़ेद चादर ओढ़े, कच्छ के विशाल  रण द्वारका के वैभव के साक्षी हैं. यह ऐसी  नहीं थी जैसा आज दिख रही है. ५१०० वर्ष पहले यहां विशाल समुद्र थी, जिसका पानी  तीव्र भूकंप में  कच्छ के खाड़ी में एकाएक चली गई. यह पानी फिर वापस न लौटी . १८१९ में फिर एक तीव्र भूकंप आई, उसने  कच्छ के विशाल  रण को सफ़ेद चादर में परिवर्तित कर दिया. द्वारका की ही तरह  सुरक्षित समुद्र से घिरी  ट