"हयग्रीव माधव"


"डेसीफर्ड  इंडस स्क्रिप्ट" में डॉ झा और डॉ राजाराम, सिंधु सभ्यता के  एक मुद्रा पाठ में  "दधिक्रा" पढ़ते हैं. चार  अक्षरों की यह वैदिक शब्द पूर्णतः प्राचीन देवनागरी पर आधारित है. पुराविदों ने इन चार  अक्षरों  के देवनागरी प्राचीनता पर बिलकुल ध्यान नही दिया.  भगवान विष्णु की मूल अवधारणा में ऋग्वेद,    "दधिक्रा"  को एक घोड़े का चिन्ह मानती है. निघण्टुक पदाख्यान में भी "दधिक्रा" एक घोड़ा का चिन्ह है.   चिकित्सक अश्विन के "मधु विद्या" में  भगवान विष्णु "दद्यान्च अथर्वण" देवता के रूप में  "अश्व -मुख"  में ही उपस्थित होते हैं.  महाभारत का काल आते आते भगवान विष्णु की अवधारणा एक ऐसे वराह चिन्ह के रूप में मिलती है, जो "अश्व-मुख" में है.  "हयग्रीव"  महाभारत का अति महत्वपूर्ण प्रकरण है.  जिसमें भगवान विष्णु की सांकेतिक चिन्ह "शिर"  से लेकर गर्दन तक "अश्व-मुख" में मिलती है   "हय"  का अर्थ "अश्व"  है और "ग्रीव"  का अर्थ "गर्दन"  है.  स्कन्द पुराण में भगवान विष्णु का वराह अवतार स्पस्टतः  "हयग्रीव" चिन्ह में है. महाभारत काल में भगवान विष्णु का सम्पूर्ण वराह चिन्ह भगवान कृष्ण में समायोजित हो जाती है. महाभारत काल में भगवान कृष्ण का सांकेतिक वराह चिन्ह   "हयग्रीव" हैं. महाभारत,  भगवान कृष्ण को "अश्व-शिर" ( १२-१२६.३ ) ,  "हयशिर" ( ५-९७.५ ), "हयमुख" ( १-२३.१६ ) के सांकेतिक  चिन्ह में परिभाषित करती है . 

महाभारत का शान्ति पर्व मिट्टी के मुद्रा में लिखे  "निघण्टु" ( वैदिक शब्द कोष ), किसी भयानक बाढ़  में धरती   के अंदर खो जाने की बात करती है. महाभारत यह भी कहता है,  द्वारका के समय भगवान कृष्ण के आदेश और कृपा से ऋषि यास्क ने इन  मिट्टी के मुद्रा को निकाल कर पुनः उस पर निरुक्त शास्त्र लिखी थी. द्वारका के ही समय मोहनजोदड़ो नगर थे. मोहनजोदड़ो में जिन मुद्राओं को कौतुहल वश हम देखते हैं उनमें अधिकाँश मुद्राओं में "निघण्टु" लिखे हैं. यह विशिष्ट खोज डॉ झा की महान उपलब्धि है. निघण्टु के आधार पर प्राचीन देवनागरी के लिपि चिन्हों से बहुत से सिंधु मुद्राओं को पढ़ ली गई.   मत्स्यपुराण ( अध्याय ५३ ) भगवान कृष्ण का  अद्भुत वर्णन करती है. मत्स्यपुराण जब लिखी जा रही थी, तब इसने,  प्राचीन घटना की सूचना दी है की  जब यह सृष्टी जल प्रलय में डूब गई थी, उस समय हमारे वेद शास्त्र  जमीन में दब गए थे. भगवान कृष्ण- विष्णु , जो "अश्वमुख" चिन्ह में हैं उन्होंने नष्ट हो गए  वेदों को  पुनः जमीन से खोद कर बाहर निकाला. यह अद्भुत वर्णन भारतवर्ष के प्राचीन पुराविद उपलब्धि की  वर्णन  करती है.   मोहनजोदड़ो की मुद्रा न केवल परिचय पत्र का ही कार्य करते थे अपितु ये मुद्रायें उस समय के मुद्रा पुस्तकालय की महत्वपूर्ण  सम्पदा थी. मोहनजोदड़ो की  बहुत सारे मुद्राओं में भगवान कृष्ण का वराह चिन्ह अश्व मुख में मिलती है. यह अश्व मुख चिन्ह, वृषभ के साथ संयुक्त अवस्था में है. महाभारत के शान्त्ति पर्व में   यही "अश्व मुख"  हैं जिन्हें "एकशृंग" कही गई.  "योगिनी तंत्र"  ( २ .९ .२२१ -२४५ ) "हयग्रीव - माधव "  की एक और महत्वपूर्ण सूचना देती है, जिसमें हमारे प्राण वल्लभ भगवान कृष्ण माधव , हयग्रीव चिन्ह में हैं. "हयग्रीव - माधव " की प्रधान मंदिर हाजो, आसाम में पाई जाती है . यह भारतवर्ष की अत्यंत दुर्लभ प्राचीन मंदिर है.  "कालिका पुराण" ( ८१-७५ ) कामरूप आसाम की  चर्चा करती है जहां भगवान कृष्ण "अश्व-मुख" में विराजमान हैं.   राजा होयसला द्वारा निर्मित मंदिर में भगवान विष्णु की अवधारणा में "हयग्रीव"  प्राप्त होते हैं .       

विष्णु पुराण ( २- ४९-५० ) , सिंधु नदी पार "भद्राश्व" देश की चर्चा की हैं जहां भगवान विष्णु की उपासना "अश्व-मुख" में की जाती है .    स्कन्द पुराण, सौराष्ट्र  में "धर्म-अरण्य"  नाम के स्थान की चर्चा करती है, जहां भगवान कृष्ण का प्रधान चिन्ह "हयग्रीव" है.  "धर्म-अरण्य" सौराष्ट्र का प्रमुख नगर है . "नीलमतपुराण"  कश्मीर की चर्चा करती है जहां भगवान कृष्ण,  अश्व मुख में पूजे जाते हैं.  "जय-आख्या संहिता" शाक्त और शक्ति उपासना का अद्भुत वर्णन करती  है.  इस उपासना में भगवान कृष्ण अश्व मुख में हैं तथा उनके साथ लक्ष्मी के रूप में वागेश्वरी हैं.  भगवान जगन्नाथ और  इंद्रद्युम्न भारत के इतिहास में साथ साथ चलते हैं. राजा  इंद्रद्युम्न उज्जैन के राजा थे. महाभारत के समय सौराष्ट्र का शासन  उज्जैन पर स्थापित थी. इसी महाभारत काल में युधिष्ठिर के आयू वर्ग के राजा इंद्रद्युम्न उज्जैन के राजा थे जो भगवान कृष्ण के भक्त थे. द्वारका डूबने के बाद  भगवान कृष्ण के स्मृति में पुरी में राजा इंद्रद्युम्न  ने भव्य   मंदिर का निर्माण किया था.  भगवान कृष्ण की अष्टभार्या में उज्जैन की मित्रविन्दा हैं जिनके पिता जयसेन  थे. उज्जैन राजा जयसेन के ही पुत्र संभवतः  इंद्रद्युम्न थे.  योगिनी तंत्र ( २ .९ .२२१ -२४५ )  पुरी के समुद्र तट  में तैरते एक विशाल काष्ट की चर्चा करती है जिसे  सात टुकड़ों में विभक्त की गई. राजा इंद्रद्युम्न  ने एक टुकड़े से भगवान जगन्नाथ की प्रधान मूर्ती पुरी में बनाई  और दूसरे टुकड़े से आसाम हाजो के "हयग्रीव माधव" की मूर्ती बनाई. ये दोनों मंदिर एक समय के बने हैं जिसकी प्राचीनता महाभारत काल से  जुड़ी है.   आसाम की "हयग्रीव माधव" मंदिर  और पुरी के  "जगन्नाथ  मंदिर" का निर्माण उज्जैन राजा  इंद्रद्युम्न ने एक विशेष निर्देश पर की थी. यह निर्देश किनका था यह एक रहस्य है.   

सिंधु घाटी सभ्यता की मुद्रा में  "हयग्रीव  माधव" को लोग पहचान नहीं  पाए.  सिंधु मुद्रा चिन्ह में हमारे भगवान कृष्ण, वृषभ के शरीर में "अश्व मुख" में हैं.  "हयग्रीव  माधव" के रूप  में सिंधु मुद्रा में "अश्व मुख" विशेष उपस्थिति रखते हैं. श्रद्धावान जिनको भगवान कृष्ण का सहज सुलभ स्नेह प्राप्त है, वे देख लेते हैं. अंधे लोग, जिनका दिमाग और नेत्र दोनों अंधा है , उन्हें  यह भव्य रूप नहीं दिखता.  


☝(पहला) तंजोर के पेंटिंग्स में अश्व मुख में भगवान विष्णु लक्ष्मी के साथ हैं. ( दूसरा ) राजा होयसाला द्वारा निर्मित मंदिर में  अश्व मुख में भगवान विष्णु    
 

☝डॉ झा ने "वैदिक ग्लॉसरी ऑन  इंडस सील्स" (१९९६ )  में दधिक्रा पाठ पढ़ी थी. यही पाठ "डेसीफर्ड  इंडस स्क्रिप्ट" में पुनः डॉ झा और डॉ राजाराम ने पढ़ा 

मोहनजोदड़ो के  भगवान कृष्ण,  हमारे "हयग्रीव माधव",  अश्व मुख में वृषभ शरीर में स्थित हैं. देवत्व बताने के लिए इनके  "शिर"  पर एकशृंग है.  ये देवता हैं इसलिए इनके सामने सोमपात्र रखी है.   विज्ञान को जब जब आप प्राचीन इतिहास  से नहीं जोड़ेगें - आप भगवान कृष्ण के रहस्य को नहीं समझ पाएंगे. इस मुद्रा में "शिर" से लेकर गर्दन तक "अश्व"  का चिन्ह है. यह चिन्ह "हयग्रीव"  का है. यह दो पशुओं की एक संयुक्त चिन्ह है. इसी प्रकार नौ पशु चिन्हो से युक्त मुद्रा मोहनजोदड़ो में मिली है. जॉन मार्शल और राखाल दास बनर्जी जैसे पुराविद, जो भारत के प्राचीन इतिहास को नही जानते तथा जिनका संस्कृत ज्ञान शून्य थी, वे "जूलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया" में इस विचित्र पशु को खोज रहे थे. इन्होने भारत को सक्षम करने के बजाय भारत की अत्यंत हानि की. इन्हीं  पुराविदों ने मूर्खता पूर्ण अवधारणा रखी थी की मोहनजोदड़ो के लोग अश्व नहीं  जानते थे तथा अश्व १५०० ईस्वी पूर्व में भारतवर्ष में आर्य आक्रमण के समय पश्चिम  एशिया से आये थे.             

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