"पांडव चित्र"

 

 
☝महाभारत  के काल समय को समेटती द्वारका का यह मानव निर्मित चित्रण,  लेटेराइट स्टोन पर बने हैं ।  यही  स्टोन द्वारका के किले की प्रधान दीवार है।  द्वारका के निवासियों को यह पता थी लेटेराइट स्टोन पर की गई चित्रकारी अनंत समय तक सुरक्षित रहती हैं।      


भारत तथा भारत से बाहर के लोग "पांडव चित्र" के बारे में कम या नहीं के बराबर ज्ञान रखते हैं।  प्रारंभिक रूप में जिसने कुछ अनर्गल कह दिया वह हमारे पुराविदों ने मान ली।  भारत के पश्चिम - दक्षिण समुद्र तट के  भू - भाग लेटेराइट शैल के बने हैं।  यही शैल,  द्वारका के कुछ द्वीपों में मिलती है।  इस शैल की विशेषता यह है की इसका समय, जल तथा वातावरण का  प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए हमारे पूर्व पुरुष यह जानते थे की इस पर की गई चित्र कला अनेक वर्षों तक सुरक्षित रहेगी।  

महाराष्ट्र  के रत्नागिरी जिले में लेटेराइट स्टोन पर बने ऐसे प्राचीन शैल चित्र मिले हैं, जिनका विधिवत ढंग से सही अध्ययन अभी तक नहीं हुई।  द्वारका के खोज के क्रम में मुझे "पांडव -चित्र" की सूचना प्राप्त हुई थी।  रत्नागिरी के ये  शैल चित्र ( पेट्रोग्लिफ ) में वही सब कुछ है, जो मानव अपने आस पास के प्रकृति में देखता है।  जैसे हाथी , खरगोश इत्यादि का चित्रण।  प्रकृति का प्रारंभिक चित्रण ने पुराविदों को एक स्वर में यह कहने के लिए विवश किया की ये प्राग-ऐतिहासिक काल के हैं। सच कहा जाय तो   प्राग-ऐतिहासिक काल की वर्तमान धारणा  भ्रामक है।  

रत्नागिरी से लेकर गोवा तथा गोवा से नीचे दक्षिण  भारत तक यह शैल चित्र मिलते हैं।  ये "पांडव चित्र" ही हैं।  रत्नागिरी के   लोग सर्वदा से पुश्त दर पुश्त इन "पांडव चित्रों"  की कहानी सुनते आ रहे हैं। ये कहानी कई हजार वर्षों की हैं।    ये "पांडव चित्र" बनाने वाले लोग कौन थे ? नार्थ अमेरिका, मेक्सिको , द्वारका होते हुए रत्नागिरी और सुदूर दक्षिण भारत में यह  "पांडव चित्र" कला  मिलती है।  हरिवंश पुराण और महाभारत विशाल स्तर पर "मय " और "विश्वकर्मा" के शिल्प विज्ञान की चर्चा द्वारका निर्माण में करता है। परिवार की आने वाली पीढ़ी भी "मय" और "विश्वकर्मा" ही कहलाये।  "मय " और "विश्वकर्मा" का शिल्प विज्ञान, उस विज्ञान परम्परा  का विस्तार है - जो परिवार के बाहर यह ज्ञान बाहर नहीं गई।  "मय" और "विश्वकर्मा"  का शिल्प विज्ञान महाभारत काल में उपस्थित  था।  मय रचित संस्कृत में लिखी "मयमताम" ऐसे ही शिल्प की चर्चा करता है जो द्वारका में अपने चरम रूप में दिखाई देती है ।      

महाभारत काल में  मय का विशाल साम्राज्य मेक्सिको में अवस्थित थी। भारत के बाहर जो भी बड़े से बड़े पिरामिड बने वह मय के परिवार ने ही बनाई थी।  भारत के बाहर पश्चिम के इतिहासकार इस परिवार को "मायांस" कहते हैं। मय को दृष्टि-भ्रामक चित्र और शिल्प बनाने की विशाल महारत  प्राप्त थी। यह कैसे बनता था - इसका ज्ञान परिवार से कभी बाहर नहीं गई।  परिवार का इस विज्ञान पर एकाधिकार था। द्वारका के शिल्प निर्माण में अनेक दृष्टि-भ्रामक चित्र मिले हैं। उदाहरण के लिए , द्वारका में एक शिल्प चित्र मिली है, जिसे एक कोण  से देखने पर सिंह दिखती है तथा दूसरे कोण से देखने पर यह मछली चिन्ह देखने में मिलती हैं। महाभारत के इंद्रप्रस्थ में भी ऐसे ही मय निर्मित  दृष्टि-भ्रामक चित्र के विवरण मिलते हैं जो मुख्यतः महाभारत युद्ध का कारण   बनी । 

डॉ. विष्णुधर  वाकणकर जी ने १९५८ में "भीम-बेटका" के शैल चित्र को खोजा  था। जैसा की नाम से स्पष्ट है यह स्थल महाभारत के प्रमुख पात्र - भीम के नाम पर रखी गई है। भीम यहां आये थे या नहीं - यह कहना उचित होगा नहीं।  पर मध्यप्रदेश के जिन लोगों ने भीम बेटका के इस चित्र को बनाई हैं - वे महाभारत युद्ध के दृश्य को जीवंत कर रहे हैं।  महाभारत के भीम नायक का वीररस का गायन यहां के चित्र कला में तो दिखती ही है साथ ही वीररस से ओतप्रोत पांडवानी शैली की अत्यंत प्राचीन गायन विधा मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में आज भी जीवित है।        पुराविद यहां के चित्रों को अत्यंत प्राचीन काल का मानते रहे हैं। पर  डॉ   विष्णुधर  वाकणकर जी ने स्वयं मेरे पिताजी ( डॉ  नटवर झा ) को बताई थी की भीमबेटका के चित्र पैनल में महाभारत युद्ध के दृश्य जीवंत हैं।   डॉ   विष्णुधर  वाकणकर जी की यह उक्ति बहुत ही सच है।  "भीम-बेटका" के अश्वारोही पैनल महाभारत युद्ध के दृश्य पर ही आधारित हैं। वहीं दूसरी ओर मेक्सिको के मायान्स साम्राज्य में भी   भीमबेटका से   समतुल्यता  रखते हुए चित्र पैनल   मिली है    

द्वारका निर्माण के अनेक वर्षों के बाद महाभारत युद्ध हुई थी।  महाभारत युद्ध के बाद भी  निर्माण कार्य द्वारका में चल रहे थे।   इस युद्ध के बहुत सारे घटना चक्र जनमानस में प्रचलित थे। मुख्यतः दो घटना चक्र ऐसे हैं जिनका प्राचीन  चित्र  हमें मिलती है।  पहला चित्र है - भगवान कृष्ण  का नौ गुण संपन्न विराट स्वरूप प्रदर्शन का चित्रण।  यह चित्रण सिंधु घाटी सभ्यता के मुद्रा, पुरी के जगन्नाथ मंदिर तथा थाईलैंड में प्राप्त होते हैं। महाभारत युद्ध की दूसरी विवरण जो बहुत ही  प्रचलित है वह है, चक्रव्यूह रचना।  यह एक वैदिक ज्यामिति रेखा है जिसका प्रयोग और जन्म महाभारत काल में हुई।  महाभारत  युद्ध के समय चक्रव्यूह रचना ( बैटल फार्मेशन ) बनाई गई थी जिसमें भगवान कृष्ण के प्रिय भांजे तथा अर्जुन पुत्र अभिमन्यू को वीर गति प्राप्त हुई थी। यह चक्रव्यूह रचना  भारत में चिर काल तक रही।   रत्नागिरी के अनेकों   चित्रों में एक चित्र चक्रव्यूह रचना की भी मिलती है।  इस  चक्रव्यूह रचना से यह प्रमाणित होती है की   द्वारका निर्माण करने वाले कारीगर, इस विज्ञान को लेकर महाभारत युद्ध के बाद , भारत के दक्षिण पश्चिम हिस्से में बस गए  होंगे तभी उन्होंने लेटेराइट स्टोन पर यह चक्रव्यूह रचना बनाई।  चक्रव्यूह रचना,  महाभारत की  देन है  इसलिए रत्नागिरी के लोग इसे "पांडव चित्र" कहते हैं। ये सम्पूर्ण प्रमाण यह कहते हैं की भारत के पुराविद और इतिहासकारों ने अपनी  अल्पज्ञता   में  भगवान कृष्ण के  इतिहास, काल, समय और संस्कृति के   साथ न्याय नहीं किया।       


☝महाभारत काल में दक्षिण पश्चिम समुद्र के किनारे रत्नागिरी जिले से लेकर गोवा तथा गोवा से भी नीचे दक्षिण भारत में लेटेराइट स्टोन की बनी चित्रकारिता पुनः प्राप्त होती है।  ये वही लेटेराइट स्टोन हैं जो द्वारका में मिली  हैं। प्रस्तुत चित्रण में रत्नागिरी के लेटेराइट स्टोन पर - महाभारत के चक्रव्यूह सैन्य रचना का ज्यामिति चित्रण है।   
    

☝डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर जी ने १९५८ में मध्य प्रदेश में भीम बेटका खोजा था।  प्रस्तुत चित्र पैनल,  महाभारत युद्ध से सम्बंधित हैं।  जिसमें अश्व सवार वीर महारथियों ने कुरुक्षेत्र के समर युद्ध में भाग लिया था 

☝मेक्सिको के मय शिल्प विज्ञानी जिसे पश्चिम के इतिहासकार और पुराविद  मायान्स कहते हैं के स्टोन पैनल में भी "भीम बेटका" के समतुल्य दृश्य प्राप्त होते हैं।  इसके अतिरिक्त मोहनजोदड़ो के वराह चिन्ह की मेक्सिको  के शिल्प चित्र में भरमार है.  

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