माता सीता के अधिकार की रक्षा
(भारत के समस्त स्त्री जाति के अधिकार की रक्षा में यह लेख तकनीकी रूप से न्याय के जानकार लोगों के लिए लिखी गई है. विषय वस्तु कहीं कठिन प्रतीत हो सकते हैं )
यह सच है प्राचीन भारत की न्याय विधि बहुत प्रतिभाशाली है. यह भारत की ऐसी महान ज्ञान तथा संपत्ति है जो पुस्तकों तक ही सीमित रह गई. जब इस प्राचीन न्याय सूत्र के जानकार न रहे तो हमारे न्याय व्यवस्था के निपटारे में हमें दूसरी न्याय सूत्र देखने पड़ते हैं. भारतीय संविधान का एक सुन्दर पक्ष यह है की प्राचीन न्याय सूत्र भारत के न्याय प्रशासन के आवश्यक भाग रहे हैं. यह अलग बात है इस प्राचीन न्याय सूत्र के जानकार अब रहे नहीं, इसलिए भारत के न्यायालय में प्राचीन न्याय सूत्र का उल्लेख नहीं दिया जाता. जस्टिस मार्केण्डय काटजू के बाद प्राचीन न्याय विधि में पारंगत विद्वान नहीं मिलते. मनुस्मृति १०६ तथा १८७ एक जटिल न्याय सूत्र देती है जब पिता की मृत्यु हो जाती है तो उसकी पूरी संपत्ति उसके "सपिण्ड" को प्राप्त होती है. आश्चर्य यह होती है, विश्व के सभ्य से सभ्य देश के न्याय प्रक्रिया ने प्राचीन मनु स्मृति के न्याय सूत्र को ही रखा है. यह कैसे हो गई ? एक सहज प्रश्न उठती है क्या भारत से न्याय व्यवस्था विश्व के सभ्य से सभ्य देशों ने सीखा -उत्तर है हाँ. ब्रिटिश न्याय - लॉ ऑफ़ इन्हेरिटेंस - "सपिण्ड" के आसपास ही चक्कर काटती है. प्राचीन न्यायविद जिमुदवाहन ने दायभाग ( ३२-३३ तथा ४० ) में सपिण्ड को स्पष्ट किया है. सपिण्ड ही श्राद्ध करने के अधिकारी हैं. दायभाग में न्याय सूत्र मिलती है -" जो श्राद्ध करने का अधिकारी है, वही संपत्ति प्राप्त करने का अधिकारी है". "लॉ ऑफ़ इन्हेरिटेंस" की आत्मा दायभाग में अवस्थित है. आज भारत के न्यायालय में अनेक ऐसे उलझे जटिल न्याय समस्या हैं जो लॉ ऑफ़ इन्हेरिटेंस से सम्बंधित हैं. हम इन समस्याओं से बाहर निकलने के लिए प्राचीन भारत के न्याय सूत्र को प्रयोग में नहीं लाते - क्योंकि इस प्राचीन न्याय सूत्र का ज्ञान अब नहीं है.
भारत के न्यायालय को ऐसे ही एक जटिल न्याय समस्या से गुजरना पड़ा था जब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम में भारत के समस्त स्त्री जाति के अधिकार, की रक्षा में एक महत्वपूर्ण निर्णय चाहे हिन्दू हो या मुसलमान के विषय में दिया था. यह भारत के स्त्री के अधिकार की लड़ाई थी. यह माता सीता के अधिकार की रक्षा थी. जब भारत ने समस्त स्त्री जाति में माता सीता को देखा. माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के स्त्री के अधिकार की रक्षा की व्यवस्था दी - जिसमें यह व्यवस्था दी गई की भारतीय स्त्री के भरण पोषण की जिम्मेवारी उसके पति की है. वह इस जिम्मेवारी से बच नहीं सकता. माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने क्रिमिनल प्रोसेजियोर कोड धारा १२५ की अवधारणा सिद्धांत को माना- जिसमें पत्नी को भरण पोषण प्राप्त होने का अधिकार है. इस निर्णय को कांग्रेस सरकार ने क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थ में पलट दी. यह माननीय सर्वोच्च न्यायालय के सम्मान का ही नहीं अपितु प्राचीन न्याय सूत्र के अवमानना का भी प्रश्न था. प्राचीन न्याय सूत्र सर्वोच्च हैं. मनुस्मृति में न्याय सूत्र मिलती है :
स्वां प्रसूतिं चरित्रं च कुलमात्मानमेव च ।
स्वं च धर्मं प्रयत्नेन जायां रक्षन् हि रक्षति ॥ ७ ॥
अंतिम पद "रक्षन् हि रक्षति" महत्वपूर्ण है. यह न्याय सूत्र कहता है - "विषम परिस्थिति में भी पति का दायित्व है की वह पत्नी की रक्षा करे". रक्षा में ही भरण पोषण समाहित है. अब तुलना कीजिये माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने शाहबानो के विषय में कितनी सुन्दर न्याय व्यवस्था दी थी. यहां प्राचीन न्याय सूत्र का समावेश है. अच्छा होगा भारत सरकार पुनः कॉंग्रेस सरकार के क़ानून को रद्द करे और माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को बहाल करे. ऐसा न करने पर भारत की प्राचीन न्याय सूत्र बाधित होती है. भारत के संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है की आप फंडामेंटल - बुनियादी प्राचीन न्याय सूत्र को बाधित कर सकें. अन्यथा प्राचीन न्यायविद - आपस्तम्ब, गौतम तथा वशिष्ठ की अवमानना करेंगे तथा पिछले ५००० वर्षों की स्थापित न्याय व्यवस्था को नष्ट करेंगे .
यह भारत के पीड़ित स्त्री के नैसर्गिक अधिकार की रक्षा करने पर बल देती है. भगवान राम ने भी माता सीता के अधिकार की रक्षा की थी. वे अनायास ही अयोध्या से बाहर नहीं कर दी गई थी. उन्हें ऋषि वाल्मिकी के आश्रम में भगवान राम ने रखवाया था और भरण पोषण के दायित्व का निर्वहन किया था. भगवान राम का आदर्श आज भी यथावत है. शाहबानो भारत की स्त्री थी. सम्प्रदाय के आधार पर हम नारी के समान अधिकार पर भेद भाव नहीं कर सकते. यह कहती है भारत में यूनिफॉर्म सिविल कोड होने चाहिए न सिर्फ स्त्री अपितु पुरुष और बच्चों का समान अधिकार सुरक्षित होने चाहिए.
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