भगवान परशुराम की प्रतीक्षा

 


    हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,
शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।
यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया  
                                                    भारत अपने घर में ही हार गया है।                                

सुनते हैं भगवान परशुराम चिरंजीवी हैं. वे जहां भी हों तत्क्षण आशीर्वाद दें.  आज भगवान परशुराम बड़े खुश होंगे. कई वर्षों के बाद प्राणहीन भारत ने  भगवान परशुराम को पुनः देखा है. आलमगीरपुर एक घृणित इस्लामिक नाम है. इसका असली नाम "परशुराम -खेड़ा" है  अर्थात "परशुराम आश्रम". यह  मेरठ में गंगा ओर यमुना नदी के बीच बसी है.   इसी आश्रम स्थल के पास द्रोणाचार्य का आश्रम स्थल भी है जो दनकौर  में गंगा और यमुना के बीच बसी है. इन दोनों आश्रम  स्थलों की देख रेख तथा व्यवस्था हस्तिनापुर के किले से संचालित होती थी. भगवान परशुराम गुरु हैं,  भीष्म , कर्ण ओर द्रोणाचार्य के,  जिन्होंने उन्हें शस्त्र विद्या का ज्ञान दिया.

यही भगवान परशुराम रामायण काल में भी मिलते हैं. यह स्पष्ट करता है की महाभारत काल में प्राचीन परशुराम वंशज की पीढ़ी यहां मौजूद थी जिसने युद्ध कौशल का ज्ञान हस्तिनापुर और उसके साम्राज्य को दी.   भारत सेवक समाज  बहुत पुराने समय से "परशुराम आश्रम " की खुदाई  की मांग कर रही थी. सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया.  तदनुसार १९५८ में  भारत सेवक समाज के  साधू के एक शिस्ट मंडल ने  स्वयं  इसकी खुदाई की.  उन्होंने वहां अत्यंत प्राचीन काल की बहुत सारी चीजों को देखा जो "परशुराम  आश्रम " थी. बाद में  लोक लज्जा से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने इसकी खुदाई की तब विश्व जगत को हड़प्पा काल की सभ्यता यहां  देखने को मिली.  यह हड़प्पा काल की सभ्यता महाभारत काल की ही सभ्यता थी. महाभारत युद्ध के कोई  १०० वर्षों के बाद हड़प्पा के अवशेष मिलने लगते हैं.  "परशुराम  आश्रम " के तार द्वारका में भगवान कृष्ण तथा हस्तिनापुर में पांडव से  जुडी थी.  

हस्तिनापुर और आलमगीरपुर में एक निश्चित सम्बन्ध है. दोनों जगह सिरेमिक पोटरी मिलते हैं. यह   सिरेमिक बनाने की कला इन्हे द्वारिका से प्राप्त हुई थी. आलमगीरपुर में  सिरेमिक पोटरी बनाने का कारखाना था जो हस्तिनापुर को भी सिरेमिक पोटरी उपलब्ध करता था. वहीं दूसरी ओर हस्तिनापुर के  "विदुर- के- टीले" में प्राचीन लोहे के  बाण बनाने के कारखाने मिले हैं जो आलमगीरपुर को लोहे के शस्त्र  उपलब्ध करते थे.

लोहे का यह ज्ञान अत्यंत प्राचीन काल में मेधातिथि को है. मेधातिथि बताते हैं इष्टिका के निर्माण में लोहे के अवशिष्ट का प्रयोग, जो सुदृढ़ता बनाये रखने के लिए आवश्यक है. यह इष्टिका न सिर्फ यज्ञ  वेदिका निर्माण के लिए उपयोग किये जाते थे पर यह संपूर्ण वैदिक साम्राज्य जो सरस्वती नदी के किनारे फ़ैली थी उसके ईंटों का एक निश्चित आधार मापदंड थी. यह  निश्चित  मापदंड,  ईंट, भार सामग्री को तौलने वाले तुलादंड, भाषा , लिपि का  निश्चित  आधार  थी जो सभी जगह समान रूप से लागू थी.   

महाभारत से कई सौ वर्ष पहले चरक और सुश्रुत हुए हैं.  नकुल ने अपने ग्रन्थ  "अश्व-शास्त्र" में चरक और सुश्रुत का नाम लिया है. चरक और सुश्रुत ने लोहे का भरपूर प्रयोग चिकित्सा के लिए की है. चरक ने अनेमिया रक्त अल्पता के  चिकित्सा में लोहे के उपयोग पर बल दिया है. वहीं सुश्रुत ने अनेक  लोहे से बने शल्य शस्त्र   का वर्णन किया है जो चिकित्सा में उपयोग होते थे. ये लोहे की आपूर्ति राजस्थान के जावर- उदयपुर  से होती थी जहां आज भी प्राचीन काल के  लोह अवशिष्ट  के टीले मौजूद हैं.  महाभारत काल और  गुप्त काल के लोह विज्ञान का अंतर यह थी की महाभारत काल में लोहे का प्रयोग चिकित्सा और युद्ध की सामग्री  बनाने में होती थी. गुप्त काल में विज्ञान इतना समुन्नत हो चुका था की हम दिल्ली के मेहरौली में लोहे का विशाल स्तम्भ बना सके जो आज तक वैसे ही खड़ी है, जो भारत का अचरज है .  

लौह काल के आधार पर  भारत के प्राचीन संस्कृति की विवेचना करना एक विवेकहीन कार्य है. भारत के प्राचीन गौरव हमारे वे इतिहास हैं जो हमसे कई हजार  वर्षों से छिपा  ली गई हैं. आज परशुराम की प्रतीक्षा है.  वे आयें और सोये भारत को जगा दें. क्या आपको नहीं लगता कोई ७५ वर्षो से इतिहास के नाम पर आपको गलत चीजें बताई गई है? हमारे तथाकथित आधुनिक इतिहासकारों को महाभारत या रामायण काल के स्थल कहने में क्यों इतना लज्जाबोध होती है !  उनके ईसाई अवधारणा में उनकी अभिशप्त बुद्धि, से  भारत स्वयं अपने घर में ही हार गई है.   




      ☝Alamgirpur Iron Objects 


             ☝Hastinapur iron arrow head ( no. 6 ) and other  Iron Objects


            ☝The Sushrut Samhita  mentions various surgical instruments made of iron used in eye surgical operation. 


☝The Dankaur is now a mess. There is an ancient temple built on an ancient mound site at Dankaur. This is the temple of Dronacharya. This has a very ancient  parallel relation to Alamgirpur. This is associated with the Mahabharata age Dronacharya School.



☝The Dwarika and its high  ceramic production technology   is the base of ceramic  at the Alamgirpur and the Hastinapur site. Look the beautiful ceramic plates spread at the Dwarka  of Bhagwan Krishna. This was produced in India around 3200 BCE. Now India has lost this science.   


☝The Alamgirpur Mound is the worst managed site by the Archaeological Survey of India. Day by day the  soils, old artifacts are  removed. We do not know for how many long years people are removing ancient artifacts from here ! The photograph shows many hidden ancient artifacts which starts looking just after heavy rain. Is it the correct way to respect and honor an age which has the relation with Bhagwan Krishna.     

                                                          **************************************

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Dwarika description from the author's book - "Discovery of Lost Dwarika" Available in the Paper book at Amazon America. The Hindi book is available at the Amazon India - click the link following: 



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    1. आपके इस भगीरथ प्रयास के लिये बहुत बहुत साधुवाद!
      💐💐💐

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