कालीबंगन के प्राचीन लोग: "यौधेय गणस्य जयः"
यौधेय की प्राचीन मुद्रा - भगवान कृष्ण के वराह स्वरूप एकशृंग मुद्रा एकाएक सिंधु घाटी सभ्यता से खत्म नहीं हो गई थी . यौधेय और इस कुल में उत्पन्न कुलिंद ने भगवान कृष्ण के चले आ रहे शासन व्यवस्था चिन्ह को यथावत रखा
द्वारिका डूबने के कुछ समय बाद युधिष्ठिर ने भी अपने भाइयों के साथ हिमालय गमन किया .युधिष्ठिर पुत्र यौधेय बड़े ही प्रतापी राजा थे जो राजस्थान - पंजाब - हिमाचल प्रदेश में शासन करते थे . ये सौराष्ट्र के अंतर्गत थे परन्तु कर कृष्ण -युधिष्ठिर को देते थे. युधिष्ठिर और भगवान कृष्ण का कुछ आपसी तालमेल था वे करों का बंटवारा करते थे. सौराष्ट्र समाज अपने अंतिम समय में लगभग १९०० ईस्वी पूर्व में संस्कृत भाषा तथा ब्राह्मी का प्रयोग कर रहा था. जो यह बतलाती है की प्राचीन भाषा में यह समाज राजकीय भाषा संस्कृत का प्रयोग करता था. यौधेय की रजत मुद्रा प्राचीन भारत की वह कहानी कहती है जो किसी ने न बताई न सूनी. पाणिनी ( महाभारत तथा कृष्ण के समकालीन ) के अष्टाध्यायी में यौधेय की बड़ी प्रशंसा प्राप्त होती है . शकटायन व्याकरण तथा जैमिनीय ब्राह्मण में भी यौधेय की बड़ी विस्तृत सूचना प्राप्त होती है. यौधेय ने लम्बे समय तक राजस्थान - हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में शासन की है . यौधेय के बहुत सारे मुद्रा में - "यौधेय गणस्य जयः" पाठ प्राप्त होती है. यौधेय के कुल में कुलिंद हुए जिन्होंने हिमाचलप्रदेश में शासन की थी . यह मुद्रा प्राचीन भारत के यौधेय वंश - कुलिंद वंश का दीर्घ सम्बन्ध भारत के प्राचीन सांस्कृतिक विरासत से करता है. मुद्रा में भगवान कृष्ण के वराह स्वरूप - एकशृंग वराह पशु अंकित है. साथ में युद्ध देवता कार्तिकेय की या लक्ष्मी आकृति भी है. मुद्रा के पीछे मोहनजोदड़ो की ध्यानस्थ पशुपति मुद्रा का आधुनिक चित्रण अवस्थित है जिनके ऊपर ओंकार का चित्रण है.
महाभारत युद्ध के खत्म होने के पश्चात राजपुताना के बहुत सारे अंचल पर युधिष्ठिर पुत्र यौधेय का शासन था. यौधेय मूलतः कृष्ण शाषित सौराष्ट्र के अंतर्गत थे. राजपुताना के प्राचीन सरस्वती नदी के तट पर इन्होने अपना साम्राज्य स्थापित की थी .
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