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गोकुल, मथुरा एक रिपोर्ताज

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    यहां यमुना का सौंदर्य अद्भुत है. मथुरा से गोकुल जाने के क्रम में यमुना ठहर जाना चाहती हैं. क्यों न हो ये पवित्र  भूमि है.  गोकुल पहुंचते ही आप एक नैसर्गिक सौन्दर्य में डूब जाते हैं. गोकुल के  ब्रह्मानंद घाट की यही यमुना  कभी कदम्ब के वृक्षों से भरी रहती थी. इसी घाट के पास,  बाबा नन्द भवन तक पहुंचने का संकरी रास्ता है. यह रास्ता अत्यंत प्राचीन है जहां कभी मथुरा के कारागार से भगवान,   नन्द भवन पहुंचे थे. यद्यपि ये भवन अब मंदिर में परिणित हो चुकी है. ५००० वर्षों के काल में कई हिन्दू राजा हुए जिन्होंने समय-समय पर इस स्थान की सेवा की. प्राचीन भवन के स्तर पर नए भवन बनते गए. गोकुल की कथा कहानियों में  बाबा नन्द के पास कई हजार गायधन थी . जो भगवान कृष्ण की प्रतीक्षा कर रही थी. यही महावन है, जहां लम्बा समय भगवान कृष्ण ने व्यतीत की.  नन्दभवन के पास गोकुल का अपना पारम्परिक खान पान है. शुद्ध घी की पूरी और खस्ता जलेबी की सुगंध सुबह सुबह यहां  मिल जाएगी.  होली आते आते गोकुल बदलने लगती है. मान्यता है भगवान भी यहां होली खेलने द्वारका से आते थे. ये अब भी आते हैं. होली   खेलते हैं. गोकुल का आध्यात्मि

समुद्र विज्ञान और एनालॉग तकनीक में हमारी द्वारका

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                        लेखक : वीरेंद्र के झा   ( लेखक द्वारका के खोजकर्ता हैं.   सम्पूर्ण चित्र सामग्री लेखक के अधिकार में सुरक्षित है.  इसका व्यावसायिक या अन्य  उपयोग बिना लेखक के अनुमति के निषिद्ध है.   लेखक से संपर्क निम्न ईमेल में की जा सकती है: birendrajha03@yahoo.com ).   स्वतंत्रता  के पश्चात भारत के इतिहास लेखन का जो   परिमार्जन  होनी चाहिए थी,  वह  नहीं की गई. दुर्भाग्य से आक्रांता इस्लामिक हमलावर को महिमा मंडित करने के प्रयास में हम अपने मूल इतिहास को खो बैठे. अयोध्या और मथुरा को भारत के इतिहास से कभी नहीं जोड़ी गई. यह  भारतीय जनमानस  को  भ्रमित करने का कुत्सित मार्ग था.  भगवान राम  और भगवान कृष्ण यद्यपि आज जन जन में हैं. यह इसलिए है की भारत के महान प्रजा ने इन्हे कभी मिथक माना ही नहीं. ब्रिटिश उपनिवेशवाद में ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार में भगवान राम  और भगवान कृष्ण  मिथक हो गए. स्वतंत्रता के बाद, सिकुलर छवि रखने के लिए भगवान राम  और भगवान कृष्ण  को भुला  दी गई.   केंद्र  सरकार  के  स्तर पर  एन.सी. ई. आर.टी  के इतिहास के  पाठ्य पुस्तक यही  अपमानजनक धारणा वर्षों तक  बना कर रखे,

महाभारत साक्ष्य - उपेक्षित भारत के ये प्राचीन अवशेष

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  अभिमन्यु का जन्म द्वारका में हुई थी. भगवान कृष्ण ने बड़े यत्न से  अभिमन्यु की  देख रेख की थी. अभिमन्यु का अधिकाँश समय द्वारका में बीता था.  शिक्षा,  अस्त्र विद्या देने की व्यवस्था द्वारका में की  गई थी. अर्जुन मात्र कहने के पिता थे. अभिमन्यु का सम्बन्ध कुलिंद राजवंश से था. इसलिए भगवान  कृष्ण को वीर कुलिंद राजवंश अत्यंत प्रिय था.  यही वंश था,  जिसने  अभिमन्यु के लिए उत्तरा दी थी .  उत्तरा,  राजा विराट की पुत्री थी जिसकी विस्तृत राज्य  राजस्थान से लेकर देहरादून के शिवालिक घाटी तक फ़ैली थी.  वीर कुलिंद राजवंश, भगवान कृष्ण के साथ महाभारत युद्ध में कौरव के विरुद्ध लड़े थे . यद्यपि इस युद्ध में राजा विराट, विराट पुत्र और  अभिमन्यु को उत्तम वीर गति प्राप्त हुई. पर भगवान कृष्ण  सहज में अभिमन्यु को भुला नहीं पाए. महाभारत युद्ध में वीर कुलिंद वंश  भी  लगभग खत्म हो गई थी. अब उत्तरा और वीर कुलिंद वंश पर  भगवान  कृष्ण की विशेष  कृपा थी.  जब तक अभिमन्यु - उत्तरा पुत्र परीक्षित  शासन करने लायक नहीं हो गए . तब तक कुलिंद राजवंश की सुरक्षा भगवान कृष्ण और द्वारका प्रशासन करती रही.   कुलिंद राजवंश  चन्द्रग

वरुण के बेटे

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  कच्छ के ये वरुण पुत्र बहुत साहसी हैं. सिंधु के विशाल दर्प को इन्होने तोड़ा है. ये समुद्र  जीत लेते हैं. इनके पूर्वज कभी भगवान कृष्ण के श्रेष्ठ नाविक थे.  ५००० वर्ष उपरांत ये वरुण पुत्र भगवान कृष्ण की प्राचीन भूमि के पास पहुंचेंगे. इनके साथ साथ कच्छ के ऊंटों का काफिला विशाल सिंधु को पार कर भगवान कृष्ण के चरणधाम के पास पहुंचेगा.  भगवान को इनकी प्रतीक्षा रहती है. ये  भगवान कृष्ण  के सखा हैं. यह अहर्निस क्रिया कोई ५००० वर्षों से चली आ रही है.  ऊँट और  वरुण पुत्र को पता है  समुद्र का पानी कब बढ़ती है और कब घटती है.  सलाया से १६ किलोमीटर दूर भगवान कृष्ण के चरण धाम के पास नाव से पहुंचने में चार घंटे लगेंगे.  ये वरुण पुत्र नहीं जानते वे कहां  जाते हैं. साल भर ये द्वीप बंद रहती है. मानव का प्रवेश इस द्वीप पर निषेध है. वर्ष के मात्र दो दिन, वे भाग्यशाली दिन हैं जब सलाया के लोग धार्मिक रीति रिवाज को पूरा करने इस द्वीप पर पहुंचते हैं. इन्हें विशेष परमिट दी जाती है. ये रात भर वहां रुकेंगे.  जैसे जैसे रात होने लगती है समुद्र का पानी हटने   लगती है और दूर से ही सिंह गर्जना करती  है. रात बढ़  चली है. 

प्राचीन नदी संस्कृति और हमारी द्वारिका

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    धर्मज्ञः पंडितो ज्ञेयो नास्तिको मूर्ख उच्यते कामः संसार हेतुश्च हृत्तआपो मत्सरः स्मृतः  ( धर्म मार्ग पर चलने वाले पंडित आस्तिक होते हैं.  वे नास्तिक मूर्ख हैं जो  कृष्ण को मिथक मानते हैं  )                   भारत वर्ष में एक अत्यंत प्राचीन नदी बहती थी जिसका विस्तृत वर्णन ऋग्वेद से लेकर महाभारत के काल तक प्राप्त होती है . यह सरस्वती नदी थी . ऋग्वेद में कोई ५० से भी ऊपर सरस्वती नदी के संदर्भ प्राप्त होती है . महाभारत के समय धीरे धीरे इसकी धारा क्षीण हो रही थी . फिर भी नदी अपने अस्तित्व में थी . यह नदी   कच्छ के खाड़ी में स्थित द्वारिका   के पास के   रेगिस्तान में जल डाल देती थी .   सेटेलाइट के फोटोग्राफ में इस विपुल जलराशि को समेटने वाली   जल पेटिका के प्राचीन पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं . इस जल पेटिका का प्राचीन सम्बन्ध हरियाणा स्थित पेहोवा से था जहां से बह कर ये कच्छ के खाड़ी में पहुँचती थी . महाभारत में भगवान कृष्ण के भाई बलराम जी का द्वारिका से लेकर सरस्व