महाभारत साक्ष्य - उपेक्षित भारत के ये प्राचीन अवशेष

 



अभिमन्यु का जन्म द्वारका में हुई थी. भगवान कृष्ण ने बड़े यत्न से  अभिमन्यु की  देख रेख की थी. अभिमन्यु का अधिकाँश समय द्वारका में बीता था.  शिक्षा,  अस्त्र विद्या देने की व्यवस्था द्वारका में की  गई थी. अर्जुन मात्र कहने के पिता थे. अभिमन्यु का सम्बन्ध कुलिंद राजवंश से था. इसलिए भगवान  कृष्ण को वीर कुलिंद राजवंश अत्यंत प्रिय था.  यही वंश था,  जिसने  अभिमन्यु के लिए उत्तरा दी थी .  उत्तरा,  राजा विराट की पुत्री थी जिसकी विस्तृत राज्य  राजस्थान से लेकर देहरादून के शिवालिक घाटी तक फ़ैली थी.  वीर कुलिंद राजवंश, भगवान कृष्ण के साथ महाभारत युद्ध में कौरव के विरुद्ध लड़े थे . यद्यपि इस युद्ध में राजा विराट, विराट पुत्र और  अभिमन्यु को उत्तम वीर गति प्राप्त हुई. पर भगवान कृष्ण  सहज में अभिमन्यु को भुला नहीं पाए. महाभारत युद्ध में वीर कुलिंद वंश  भी  लगभग खत्म हो गई थी. अब उत्तरा और वीर कुलिंद वंश पर  भगवान  कृष्ण की विशेष  कृपा थी.  जब तक अभिमन्यु - उत्तरा पुत्र परीक्षित  शासन करने लायक नहीं हो गए . तब तक कुलिंद राजवंश की सुरक्षा भगवान कृष्ण और द्वारका प्रशासन करती रही.  

कुलिंद राजवंश  चन्द्रगुप्त मौर्य,  तक अपने  वर्चस्व में रही है. महाभारत युद्ध से लेकर चन्द्रगुप्त मौर्य,   तक की चिर स्थाई यह वंश  राजा परीक्षित की वीर मातृकुल थी.  जिसे भारत के लोगों ने अपनी  अज्ञानता में सहज ही भुला दिया. सिंधु सभ्यता के गवेषक तो इसका महत्व समझ ही नहीं पाए.  आधुनिक इतिहासकार इस वीर वंश जिसका चिर सम्बन्ध भगवान कृष्ण से था, नाम तक नहीं लेते.   राजा परीक्षित की वीर मातृकुल  ने कई अश्वमेद्य यज्ञ किये थे और चांदी की बने सिक्के जारी  किये थे. इन चांदी   के  सिक्कों में भगवान कृष्ण की "एकशृंग वराह" चित्रण प्राप्त होती है. सिक्के के  पीछे स्वस्तिक और भगवान शिव की प्राचीन प्रतीक (  मूलबद्ध आसन  में प्राचीन मुद्रा ) प्राप्त होती है. यह राजा अमोघ के सिक्के थे जो वीर कुलिंद  के  कुलपुरुष   थे. इस सिक्के में प्राचीन ब्राह्मी में लेख लिखे हैं. कुलिंद राजवंश  के योद्धाओं का उल्लेख महाभारत, कर्णपर्व (८५. 4) में हुआ है: ‘नवजल दसवणैर्हस्ति भिस्तानुदीयुर्गिरिशिखर निकाशैर्भीमवगै: कुलिन्दा:’ वे  अभिमन्यु  की ओर से महाभारत के युद्ध में सम्मिलित हुए थे. पाणिनि तथा विष्णु पुराण में इस वीर वंश का विशेष उल्लेख हैं.     

कुलिंद राजवंश  के चांदी के सिक्के और उसपर उत्कीर्ण भगवान कृष्ण की "एकशृंग वृषभ मुद्रा" आधुनिक इतिहासकार के दृष्टी से ओझल रही.     डॉ. बी. बी. लाल तो इसका महत्व समझ ही नहीं पाए. डॉ. अस. आर. राव, बेट द्वारका पहुंच कर भी इस प्रमाण से अनभिज्ञ रहे की चांदी के सिक्के और उसपर उत्कीर्ण भगवान कृष्ण की "एकशृंग वृषभ मुद्रा" का द्वारका से क्या सम्बन्ध हैं.   देहरादून के इस पवित्र घाटी में इसी वंश के लोगों ने द्वारका डूबने के बाद अश्वमेध यज्ञ किये हैं. जिस स्थल पर अश्वमेध यज्ञ किये गए उन स्थलों पर प्राचीन ईंट बिखरे हैं जो श्येन चित्ती के आकार के  प्राचीन  यज्ञ वेदी  हैं . ५० के दशक में भारत सरकार की नजर इस उपेक्षित स्थल पर पडी. यद्यपि इसे घेर दी गई हैं. पर वहां तक पहुंचने का कोई सुगम  मार्ग नहीं हैं. भारत सरकार; उत्तराखंड सरकार और अन्सिएंट मोन्यूमेंट ऑथोरिटी ऑफ़ इंडिया के लिए यह प्र्श्न  है की आखिर महाभारत का अवशेष जिसका सम्बन्ध भगवान कृष्ण से है इतना उपेक्षित क्यों ??  

☝देहरादून की पवित्र यज्ञशाला में कुलिंद राजवंश के मिले प्राचीन चांदी के सिक्के. कुलिंद राजवंश ने भगवान कृष्ण का प्राचीन एकशृंग वराह स्वरूप वही रखा जो द्वारका तथा मोहनजोदड़ो में मिलती  है. इस सिक्के में प्राचीन ब्राह्मी लेख मिले हैं जो भारत की प्राचीन ब्राह्मी लिपि के क्रमिक विकास की कहानी कहती है. सिक्के के पीछे मोहनजोदड़ो के स्वस्तिक और  भगवान शिव  का मूलबद्ध आसन के चित्र बने हैं      

    

☝कुलिंद राजवंश के अश्वमेध यज्ञ के श्येन चित्ती पर आधारित यज्ञशाला के बिखरे ईंट.   


☝यज्ञशाला के पीछे देहरादून - शिवालिक की विहंगम पहाड़ी  

  
☝यज्ञशाला और स्वर्ण आभा लिए देहरादून की पहाड़ी 

☝यज्ञशाला के पास बहती सुन्दर निर्मल यमुना नदी.  पीछे देहरादून - मसूरी की विहंगम पहाड़ी 

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