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Showing posts from July, 2022

"कलि संवत 804 : सरस्वती नदी की एक उजड़े बस्ती की कहानी"

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 .  ☝सरस्वती नदी की यह सूखी पेटी  कलि  संवत 804 में बह रही थी. पाकिस्तान की स्थानीय प्रजा   आज भी इसे  सरस्वती नदी ही कहते हैं   (  आभार : पाकिस्तान के हशम हुसैन शेख साहब ) 3100 ईस्वी पूर्व ( 3100 BCE )  में द्वारका डूब गई. इस भौगोलिक परिवर्तन में एकाएक कच्छ के रण भी सूख गए. द्वारका डूबने के समय, सरस्वती नदी बह रही थी. सरस्वती की मुख्य तीन धारा सिरसा के पास विभजित होती थी. एक धारा  हनुमानगढ़, कालीबंगन, पाकिस्तान के फोर्ट अब्बास,  कच्छ के रण  होते हुए पाकिस्तान  के मीरपुरखास   जिले में पहुँचती थी.  कच्छ के रण,  नमक में परिवर्तित हो जाने के कारण, कालीबंगन और मीरपुरखास  जिले में पहुंचने वाली पानी बंद हो गई. यह विषम जलवायू परिवर्तन थी. हिमालय से लेकर कालीबंगन परिपथ की नदी भी सूख गई . पाकिस्तान के मीरपुरखास  जिले, तहशील सिंडरो  में सरस्वती नदी के किनारे एक बहुत बड़ी बस्ती थी, जो आज जमीन के नीचे पडी है. यहां विपुल मात्रा में सिरेमिक बर्तन तो मिले ही हैं साथ ही महत्वपूर्ण पुरालेख भी प्राप्त हुए हैं. ये पुरालेख संस्कृत भाषा में हैं तथा प्राचीन  देवनागरी लिपि में लिखी है. इस पुरालेख के अंतिम वाक्

"स्पेस आर्कियोलॉजी" में भारत की ऊंची छलांग

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  ☝ "स्पेस आर्कियोलॉजी" में "एनालॉग तकनीक"  भारत की ऊंची उड़ान है. यह  न केवल सेटेलाइट को समुद्र के अंदर देखने   की  क्षमता प्रदान करती है, अपितु विज्ञान के असीमित संभावना को लेकर यह तकनीक उपस्थित हुई है . चित्र में गहरे पानी में स्थित प्राचीन द्वारका में संगमरमर से निर्मित भगवान कृष्ण की राजमहल देखी जा रही है.        ( Protected under Copyright & Intellectual Property Law  : Birendra K Jha )   द्वारका की खोज, भारत के प्राचीन इतिहास और संस्कृति के अनेक अनसुलझे प्रश्नों का उत्तर देती है. द्वारका, पूर्व वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल की संगम बिंदु है. द्वारका निर्माण के लगभग 30 वर्षो के बाद महाभारत युद्ध हुई थी. महाभारत युद्ध के उपरान्त, मोहनजोदड़ो जैसे नगर उदित हुए. मोहनजोदड़ो की मुद्रायें विशाल परिमाण में, महाभारत युद्ध के नायक भगवान कृष्ण का स्मरण करते हैं.  द्वारका से प्राप्त जैविक अंश   के वैज्ञानिक कार्बोन डेटिंग,   द्वारका डूबने   का सटीक समय 3100 ईस्वी पूर्व ( 3100 BCE ) बताते हैं. हिन्दू कलेण्डर, सटीक वर्षों में  यह समय 3102  ईस्वी पूर्व ( 3102 BCE ) रखती  है.

विघाकोट की डायरी

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कच्छ की रण भगवान कृष्ण की वह अद्भुत संसार है जिसके बारे में हमारे इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता,  भूगर्भवेत्ता  बहुत ही कम  जानते हैं.  इतिहासकारों तथा  पुरातत्ववेत्ताओंने ने कभी जानने का प्रयास नहीं किया की इस जगह की महत्ता भारतीय संस्कृति और इतिहास में क्या है !   कच्छ का रण समुद्री मार्ग  द्वारा,  कच्छ के खाड़ी  में डूबे भगवान कृष्ण के द्वारका से जुडी थी.    कच्छ के खाड़ी के अंतिम सिरे में सरस्वती नदी और  समुद्र,   एक विशाल डेल्टा बनाती थी. इस डेल्टा की एक शिरा  कच्छ की खाड़ी तथा दूसरी शिरा कच्छ के रण से जुडी थी. कच्छ की रण पहले समुद्र थी. कुछ ऐसी जलवायू परिवर्तन हुई की सरस्वती नदी डेल्टा और कच्छ की रण के समुद्र  दोनों सूख गए. इस डेल्टा से  कच्छ की रण को जाने वाली सूखी पट्टी में अनेक समुद्री मछलियों और समुद्री जीव जन्तुओ के प्राचीन अवशेष प्राप्त होते हैं. विज्ञान इन अवशेषों के आधार पर यह प्रमाणित करती है की कभी ये सूखी पट्टी समुद्र थे. सेटेलाइट में  इस प्राचीन समुद्र के सूखे अवशेष को देखी गई है.  हम आपको लिए चलते हैं भगवान कृष्ण के उस युग में जब सरस्वती नदी डेल्टा और कच्छ के रण सूखे नहीं थ

"हयग्रीव माधव"

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"डेसीफर्ड  इंडस स्क्रिप्ट" में डॉ झा और डॉ राजाराम, सिंधु सभ्यता के  एक मुद्रा पाठ में  "दधिक्रा" पढ़ते हैं. चार  अक्षरों की यह वैदिक शब्द पूर्णतः प्राचीन देवनागरी पर आधारित है. पुराविदों ने इन चार  अक्षरों  के देवनागरी प्राचीनता पर बिलकुल ध्यान नही दिया.  भगवान विष्णु की मूल अवधारणा में ऋग्वेद,    "दधिक्रा"  को एक घोड़े का चिन्ह मानती है. निघण्टुक पदाख्यान में भी "दधिक्रा" एक घोड़ा का चिन्ह है.   चिकित्सक अश्विन के "मधु विद्या" में  भगवान विष्णु "दद्यान्च अथर्वण" देवता के रूप में  "अश्व -मुख"  में ही उपस्थित होते हैं.  महाभारत का काल आते आते भगवान विष्णु की अवधारणा एक ऐसे वराह चिन्ह के रूप में मिलती है, जो "अश्व-मुख" में है.  "हयग्रीव"  महाभारत का अति महत्वपूर्ण प्रकरण है.  जिसमें भगवान विष्णु की सांकेतिक चिन्ह "शिर"  से लेकर गर्दन तक "अश्व-मुख" में मिलती है   "हय"  का अर्थ "अश्व"  है और "ग्रीव"  का अर्थ "गर्दन"  है.  स्कन्द पुराण में भगवान